इतिहास की साक्षी करमाटांड़ की धरती, गुरुजी से जुड़ाव है ऐतिहासिक
कुमार अनंत | गोमिया
झारखंड आंदोलन के अग्रणी नेता और आदिवासी समाज के मसीहा दिशोम गुरु शिबू सोरेन का गोमिया क्षेत्र से गहरा और ऐतिहासिक संबंध रहा है। सत्तर के दशक में जब तत्कालीन बिहार सरकार ने उनके खिलाफ ‘बॉडी वारंट’ जारी किया था और उन्हें जिंदा या मुर्दा पकड़ने का आदेश दिया गया था, उस समय गुरुजी ने गोमिया के करमाटांड़ गांव में सात दिनों तक शरण ली थी।
1972 की पहली ऐतिहासिक सभा
शिबू सोरेन पहली बार 1972 में गोमिया के आईईएल थाना के समीप एक जनसभा को संबोधित करने पहुंचे थे। इस सभा में आसपास के क्षेत्रों से बड़ी संख्या में आदिवासी, किसान और महाजनी प्रथा से पीड़ित लोग जुटे थे। सभा के दौरान ‘धनकटनी रोकने’ और ‘जमीन वापसी’ को लेकर जोरदार हुंकार भरी गई थी, जिसने झारखंड आंदोलन को नई दिशा दी।
करमाटांड़ में सात दिन की गुप्त शरण
बॉडी वारंट के बाद गुरुजी को करमाटांड़ गांव में मो. सुलेमान और बंशी मांझी ने छिपाकर रखा था। मो. सुलेमान बताते हैं, “एक रात आईईएल थाना से पुलिस हमारे घर पहुंच गई। स्थिति भांपते हुए हमने गुरुजी को कोठा में छिपा दिया। पुलिस तलाशी के बाद हमें थाना ले गई और देर रात करीब 2 बजे छोड़ दिया गया।”
इसके बाद सुरक्षा कारणों से अगली सुबह ही अम्बेसडर कार से उन्हें टुंडी पहुंचा दिया गया। करमाटांड़ में उनके लिए विशेष इंतजाम किए गए थे – दिन में झंगरी पहाड़ी पर और रात में घर में उन्हें छिपाकर रखा जाता था।
धनकटनी आंदोलन और साथियों का बलिदान
शिबू सोरेन का नावाडीह प्रखंड के गोनियाटो और साड़म गांव में भी मजबूत जनाधार रहा। धनकटनी आंदोलन के दौरान उनके साथ दुर्गा तिवारी कंधे से कंधा मिलाकर खड़े रहे। इसी दौरान एक हत्या का मामला सामने आया, जिसमें दुर्गा तिवारी ने गुरुजी को बचाते हुए हत्या की जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली। यह घटना गुरुजी के प्रति उनके साथियों की निष्ठा और बलिदान की मिसाल बन गई।
इतिहास की साक्षी करमाटांड़ की धरती
दिशोम गुरु का गोमिया में प्रवास और संघर्ष झारखंड आंदोलन की उस पृष्ठभूमि को रेखांकित करता है, जहां अत्याचार के विरुद्ध आदिवासी चेतना का उदय हुआ और आंदोलन व्यापक स्वरूप में विकसित हुआ। आज भी करमाटांड़ की मिट्टी उस गौरवशाली इतिहास की साक्षी है, जिसने झारखंड राज्य निर्माण की नींव मजबूत की।