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पलायन की त्रासदी: तीन दिन में तीन शव लौटे गांव, बंधक बनी एम्बुलेंस

पलायन की त्रासदी: तीन दिन में तीन शव लौटे गांव, बंधक बनी एम्बुलेंस
गोमिया
प्रवासी मजदूरों की दर्दनाक मौत और उसके बाद गांव लौटते शवों ने एक बार फिर पलायन की त्रासदी, गरीबी की मार और सरकारी-प्रशासनिक उदासीनता की हकीकत को उजागर कर दिया है। गोमिया प्रखंड के सुदूरवर्ती चुटे और कर्री खुर्द पंचायतों के तीन मजदूरों के शव बीते तीन दिनों में गांव पहुंचे, जिससे पूरे इलाके में मातम पसर गया। इन घटनाओं ने ग्रामीणों के आक्रोश को भी हवा दी, जिसके चलते शव लेकर आई एम्बुलेंस तक को मुआवजे की मांग को लेकर घंटों रोका गया।

पहला मामला – करमा बास्के (26), जमुआ बेड़ा, चुटे पंचायत
शुक्रवार को चुटे पंचायत के जमुआ बेड़ा गांव निवासी करमा बास्के का शव गांव पहुंचा। काम के सिलसिले में बाहर गया यह युवक अब शव बनकर लौटा। गांव में पुल नहीं होने और सड़क जर्जर होने के कारण शव को लाने में काफी परेशानी हुई। ग्रामीणों ने मुआवजे की मांग को लेकर एम्बुलेंस को रोक लिया। मुखिया रियाज के अनुसार, कंपनी ने 50 हजार रुपये भेजे थे लेकिन वह कम था, इसलिए और 50 हजार रुपये की मांग की गई। कंपनी ने जब वायदा किया तब छोड़ा गया।
दूसरा मामला – छोटेलाल हांसदा (51), बासोबार, कर्री खुर्द पंचायत
गुरुवार को कर्री खुर्द पंचायत के बासोबार गांव निवासी छोटेलाल हांसदा का शव गुजरात से एम्बुलेंस के जरिये गांव लाया गया। गुजरात में काम के दौरान उसकी मौत हो गई थी। शव पहुंचते ही गांव में कोहराम मच गया। परिजनों और ग्रामीणों ने मुआवजे के अभाव में एम्बुलेंस और अहमदाबाद से आए दो चालकों मणिलाल प्रजापति और नागजी भाई उर्फ नंदू को बंधक बना लिया। संवेदक की अमानवीयता पर लोगों में गहरा रोष दिखा।
तीसरा मामला – महावीर हेम्ब्रम, डंडरा, कर्री खुर्द पंचायत
बुधवार को डंडरा गांव निवासी महावीर हेम्ब्रम का शव कर्नाटक से पहुंचा। काम के दौरान उसे करंट लगा था। शव पहुंचने पर परिजनों और ग्रामीणों ने मुआवजे की मांग को लेकर एम्बुलेंस को 5 घंटे तक रोके रखा। अंततः जब कंपनी ने 50 हजार रुपये भेजे, तब जाकर उसे छोड़ा गया।
टूटते सपने, उजड़ते परिवार
तीन दिन, तीन शव, तीन कहानियां—परिवारों के टूटने, उम्मीदों के बिखरने और गरीबी के खिलाफ संघर्ष की मार्मिक तस्वीरें हैं। मजदूरी के लिए सैकड़ों किलोमीटर दूर जाने वाले ये श्रमिक अक्सर बिना सुरक्षा, बिना बीमा और बिना संवेदना के काम करने को विवश हैं। उनकी मौत के बाद परिवारों के हिस्से में आती है लाचारी, आंसू और न्याय के लिए जद्दोजहद। ग्रामीणों का कहना है कि अगर स्थानीय स्तर पर रोजगार मिलता, तो आज उनके बेटे और पति इस तरह परदेश में नहीं मरते।

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